राजवंशी भाषिक कविता : “मँसी गे मँसी”

मँसी .. गे मँसी,
केत्तेक .. कुराबो घँसी।
जाबा मेनाचे .. घुरुवा
हामाअ .. जाईना बार्हदशी।।

माँअ छरिल मोक .. तोर सँगे ,
हए गे .. सुकुम्बासी ।
करिचु गे आप ..तहरे भर्सा,
हामाअ घुरिना .. जाए बार्हदशी ।।

दुखते काम लागे .. कहचे बहिना
करुवा लागे .. जाई-असी।
केतेक खाबो .. कचु ,घेरा
खाबा मेनाचे .. टँल्टँलीया खसी।।

बेराले इष्टते .. बढ्बे चिन्जान
रास्ता घुलामाटीते .. निगाँज्बे गे काँशी।
लोक्ला करेचे ढल्ढल .. देखिए दुनियाँ
हामाअ घुरिना .. जाए बार्हदशी ।।

घरते गे मँसी .. ढुकिए रहले,
लोक्ला उराबे गे .. गरीबेर हाँसी।
यिड् जुग त .. हए सभार
परिवर्तने हए .. यिड् युगेर साक्षी ।।

जोगेन्द्र प्रसाद राजवंशी
कचनकवल :- ३, दल्की झापा
हाल :- मलेसिया

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